ये सियासत रंडियों, जैसा खुला बाज़ार है .

आजकल हर शख्स , बिकने के लिये तैयार है .
ये सियासत रंडियों, जैसा खुला बाज़ार है .

नाम के हैं लोकसेवक, काम से हैं बादशाह ,
अब सदन ऐसे लगे, ज्यों राजसी दरबार है .

नीति, नीयत, नेकनामी, से नहीं है वास्ता ,
कुर्सियों पर बैठने को, वो भी दावेदार है .

थाह पाना है नहीं आसान, इनकी सोच का ,
इनके आगे पानी भरता, झूठ का सरदार है.

इक दफ़ा कुर्सी मिली तो, सब ग़रीबी मिट गई ,
ख़ूब फलता, फूलता ये, आज कारोबार है .

क़ातिलों को रेस्ट हाउस, कुर्सियां मक्कार को ,
चोर की करता हिफ़ाज़त, आज थानेदार है .

डॉ. सुनील त्रिपाठी निराला, 98262-36218

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