ख़्वाब
आँखों में सजाते हुए, थक जाते हैं
यूँ
ही क़ब्रों में नहीं सोए, थके हारे बदन
लोग
दुनिया से निभाते हुए, थक जाते हैं
मेहरबाँ
कोई नहीं शहर में, इक तेरे सिवा
यूँ
तो हम हाथ मिलाते हुए, थक जाते हैं
छोड़
जाते हैं वही लोग, कड़े वक़्त
में क्यों
हम
जिन्हें अपना बताते हुए, थक जाते हैं
लौट
आओ न किसी रोज़, ऐ जाने वालो
हम ग़म-ए-हिज्र
छुपाते हुए, थक जाते हैं
उन के
सीनों में भी होते हैं, तलातुम ग़म के
वो जो
औरों को हँसाते हुए, थक जाते हैं
- मुबारक
सिद्दीक़ी
शौक़
से निकालिए नुक्स मेरे किरदार में ।
आप न
होंगे तो मुझे तराशेगा कौन ?
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ऐसे आंखों
ने मेरी देखे हैं मंज़र कितने,
आए और
आ के गए जाने सिकंदर कितने।
-असद ग़ाज़ीपुरी
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मुझे
वफ़ा की तलब है मगर हर इक से नहीं
कोई
मिले मगर उस यार-ए-बेवफ़ा की तरह
#अहमद_फ़राज़
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