Ghazal
छू के जब तेरे अधर जाती है
तब ग़ज़ल और संवर जाती है
जब पड़ोसी पे नज़र जाती है
मेरी गुड़िया तो सिहर जाती है
उम्र भर साथ निभाती है फिर
ज़िन्दगी जाने किधर जाती है
कुछ तो जादू है तेरे चेहरे में
क्यूं नज़र तुझपे ठहर जाती है?
इन चिराग़ों से ज़रा पूछो तो
रौशनी कैसे बिख़र जाती है?
वो नज़र है कि कटारी कोई
रूह में सीधे उतर जाती है
ढीठ कितनी है अरे ख़ामोशी
आ के कमरे में पसर जाती है
याद आता है ख़ुदा इंसां को
उम्र जब सारी गुज़र जाती है
बांटती है ये नदी जीवन तब
जब पहाडों से उतर जाती है
कच्ची मिट्टी का घड़ा ले सोहनी
चढ़ते दरिया में उतर जाती है
जब भी *राही*से करूं बातें तो
ज़िन्दगी मुझपे बिफर जाती है
निज़ाम राही
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