अफगानिस्तान एक सच्चाई
( जिसने भी ये लेख लिखा है उसे दिल से सलाम )
*हमारे पूर्वज और अफगानिस्तान*
इस लेख को पढ़ने से पहले तनिक गौर से इस छायाचित्र को देखें। संसार में सर्वाधिक युद्ध एशिया में खासकर भारत भूमि पर लड़े गए हैं। हालांकि भारत सदा एक शांतिप्रिय देश रहा है, फ़िर भी अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया वालों के धर्म-संस्कृति 1500-2000 वर्ष पहले कुछ और थे और आज कुछ और हैं। केवल भारत ही वो देश है संसार में जिसके धर्म-संस्कृति 1500-2000 वर्ष पहले भी जो थे आज भी वही हैं और उसके पालन करने वालों की संख्या भी 125 करोड़ पार है।
आज जब देख-पढ़ रहा हूं कि साढ़े 3 लाख अफगान सैनिकों ने समर्पण कर दिया महज 70-80 हजार तालिबानियों के सामने और 5 करोड़ जनता भी सरेंडर हो गई। लानत है ऐसी कौम पर जिसे भारतीय फिल्मों में पठान के नाम पर बहादुर और शेरखान टाइप दिखाया जाता रहा है। काबुली वाला की अंट-शंट कहानियां। विगत एक वर्ष से भारत इन्हीं भूखे-नंगे अफगानियों को खाने के लिए फोकट में गेंहू, दवाईयां और बिस्किट भेज रहा था, इस स्तर के भिखारी हैं ये लोग।
1971 में भी पाकिस्तानी फौज़ में यही लोग थे जिन्होंने करीब एक लाख की संख्या में भारतीय वीरों के समक्ष समर्पण किया था। 1867 में 21 सिक्खों ने सारागढ़ी में इन्हें ही धूल चटाई थी। राणा साँगा ने वहीं के लोधियों को कूटा था। उससे पहले वहीं से आए शहाबुद्दीन गोरी ने 16 बार क्षमा मांगी थी पृथ्वीराज चौहान से। यह सिलसिला बहुत पीछे तक अशोक और महाभारत तक जाता है। यह भारत के झूठे लेखक, इतिहासकार और फिल्मकार थे जिन्होंने इन कापुरुष और डरपोक अफगानियों को वीर बताया, जबकि इनकी सारी वीरता सदा निहत्थों पर ही रही।
आज फ़िर इन तालिब पठानों के समक्ष एक अकेले ब्राह्मण राजेश कुमार ने भगवान शिव के मंदिर को छोड़कर काबुल से चले जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। मौत के सामने साहस इसे कहते हैं...अगर आप भारत में रहते हैं और आपके नाम के आगे आज भी रैगर, वर्मा, शर्मा, ठाकुर, अग्रवाल, वाल्मिकी, गुप्ता, यादव, गुर्जर, चौधरी या कोई भी भारतीय सरनेम लगता है तो गर्व कीजिए अपने पूर्वजों पर उनकी बंशी पर, उनकी तलवार या बन्दूक और उनकी जनेऊ पर या उनकी पगड़ी-साफे पर। आप एक बार सोचो तो कैसे वीर रहे होंगे वे कि पीढी दर पीढ़ी 2000 सालों तक सर दे दिये लेकिन "सरनेम" नहीं दिया। आप आज भी अक्षुण्ण हो...उनकी बदौलत।
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