कभी साथ बैठो तो कहूँ कि दर्द क्या है,
अब यूँ दूर से पूछोगे तो ख़ैरियत ही कहेंगे !
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सुख मेरा काँच सा था,
न जाने कितनों को चुभ गया !
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कुछ सोच के उसने भी दीवाना
बनाया है,
कुछ सोच के हमने भी घर अपना
जलाया है !
अब हमसे नहीं होगी शाहों की क़दम
बोशी,
सर हमने फ़क़ीरों की चौखट पे
झुकाया है !
- सुधीर बेकस
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