ग़ज़ल ...... बेवजह रूठना वो मनाना कहाँ गया - अतिया नूर
ग़ज़ल
......
बेवजह रूठना वो मनाना कहाँ गया
बे वक़्त हँसना और हंसाना कहाँ गया।
नज़रों के अब वो तीर चलाना कहां गया
दिल पर जो जा लगे वो निशाना कहां गया।
बचपन का वक़्त हाय सुहाना कहां गया
काग़ज़ की कश्तियों का बनाना कहां गया।
ख़ामोश है शजर सभी शाख़ें उदास हैं
चिड़ियों के चहचहों का ज़माना कहाँ गया।
वो बारिशों के दिन वो लड़कपन वो शोख़ियां
ख़ुशियों भरा वो सारा ख़ज़ाना कहाँ गया।
वो सुरमई सी शाम में तारोँ को ओढ़कर
सपने पलक पलक पे सजाना कहाँ गया।
वो चौदहवीं की रात में चँदा को देखकर
कँगन कलाइयों में घुमाना कहाँ गया।
दिल में हज़ारों ग़म मगर आँखें ये ख़ुश्क हैं
हर चोट पर वो अश्क बहाना कहाँ गया।
कितना पुकारा "अतिया"न लौटा वो फिर कभी
अंदाज़ उसमें था जो पुराना कहाँ गया।
अतिया नूर
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