मृगतृष्णा
-:: मृगतृष्णा ::-
इच्छाओं की पूर्ति मानव मूल्यों की अद्भुत कहानी*
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी। किसी फ़क़ीर ने सम्राट से भिक्षा माँगी थी। सम्राट ने उससे कहा- "जो भी चाहते हो, माँग लो"। दिन के प्रथम याचक की किसी भी इच्छा को पूरा करने का उसका नियम था। उस फ़क़ीर ने अपने छोटे से भिक्षा-पात्र को आगे बढ़ाया और कहा- "बस, इसे स्वर्ण-मुद्राओं से भर दें"।
सम्राट ने सोचा, "इससे सरल बात और क्या हो सकती है ?" लेकिन जब उस भिक्षा-पात्र में स्वर्ण मुद्रायें डाली गईं, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असम्भव था क्योंकि वह तो जादुई था। जितनी अधिक मुद्रायें उसमें डाली गई, उतना ही अधिक वह ख़ाली होता चला गया ।
*सम्राट ने अपने सारे ख़ज़ाने ख़ाली कर दिये, लेकिन ख़ाली पात्र ख़ाली ही रहा। उसके पास जो कुछ भी था सभी उस पात्र में डाल दिया, लेकिन अद्भुत पात्र अभी भी ख़ाली का ख़ाली ही रहा ।
तब उस सम्राट ने कहा, "भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण नहीं हैं। उसे भरना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है ?
*वह फकीर हँसने लगा और बोला-"कोई विशेष रहस्य नहीं हैं। मरघट से निकल रहा था कि मनुष्य की खोपड़ी मिल गयी, उससे ही यह भिक्षा पात्र बना है। मनुष्य की खोपड़ी कभी भरी नहीं इसलिये यह भिक्षा पात्र कभी नहीं भरा जा सकता हैं ।
*धन से, पद से, ज्ञान से -किसी से भी भरो ,यह ख़ाली ही रहेगी क्योंकि इन चीज़ों से भरने के लिये यह बनी ही नहीं हैं। मनुष्य की द्रव्य भूख अंत हीन है। ओर इसी मृग तृष्णा में दौड़ते दौड़ते उसका ही अंत हो जाता है ।
*आत्म ज्ञान के मूल सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है। हृदय की इच्छायें कुछ भी पाकर शान्त नहीं होती हैं। "क्योंकि ह्रदय तो परमात्मा को पाने के लिये बना हैं ।
परमात्मा के अतिरिक्त और कहीं सन्तुष्टि नहीं , उसके सिवाय और कुछ भी मनुष्य के हृदय को भरने में असमर्थ है।"
इच्छाएं कम कीजिए
मन की कोठरी खाली और साफ कीजिए
तभी तो ईश्वर का वहां निवास होगा।
मन से तृष्णा मरी नहीं
लालच गयो न काम
कोठरी तो यह भरी पड़ी
कहां बैठेंगे श्री राम ।।
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