आज के दौर में हर चीज़ नादारत
देहरी, आंगन, धूप नदारद।
ताल, तलैया, कूप नदारद।
घूँघट वाला रूप नदारद।
डलिया,चलनी,सूप नदारद।
आया दौर फ्लैट कल्चर का,
देहरी, आंगन, धूप नदारद।
हर छत पर पानी की टंकी,
ताल, तलैया, कूप नदारद।।
लाज-शरम चंपत आंखों से,
घूँघट वाला रूप नदारद।
पैकिंग वाले चावल, दालें,
डलिया,चलनी, सूप नदारद।।
🤨🤨
बढ़ीं गाड़ियां, जगह कम पड़ी,
सड़कों के फुटपाथ नदारद।
लोग हुए मतलबपरस्त सब,
मदद करें वे हाथ नदारद।।
मोबाइल पर चैटिंग चालू,
यार-दोस्त का साथ नदारद।
बाथरूम, शौचालय घर में,
कुआं, पोखरा ताल नदारद।।
🤨🤨
हरियाली का दर्शन दुर्लभ,
कोयलिया की कूक नदारद।
घर-घर जले गैस के चूल्हे,
चिमनी वाली फूंक नदारद।।
मिक्सी, लोहे की अलमारी,
सिलबट्टा, संदूक नदारद।
मोबाइल सबके हाथों में,
विरह, मिलन की हूक नदारद।।
🤨🤨
बाग-बगीचे खेत बन गए,
जामुन, बरगद, रेड़ नदारद।
सेब, संतरा, चीकू बिकते
गूलर, पाकड़ पेड़ नदारद।।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
जोत-जात में मेड़ नदारद।
रेडीमेड बिक रहा ब्लैंकेट,
पालों के घर भेड़ नदारद।।
🤨🤨
लोग बढ़ गए, बढ़ा अतिक्रमण,
जुगनू, जंगल, झाड़ नदारद।
कमरे बिजली से रोशन हैं,
ताखा, दियना, टांड़ नदारद।।
चावल पकने लगा कुकर में,
बटलोई का मांड़ नदारद।
कौन चबाए चना-चबेना,
भड़भूजे का भाड़ नदारद।।
🤨🤨
पक्के ईंटों वाले घर हैं,
छप्पर और खपरैल नदारद।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
दरवाजे से बैल नदारद।।
बिछे खड़ंजे गली-गली में,
धूल धूसरित गैल नदारद।
चारे में भी मिला केमिकल,
गोबर से गुबरैल नदारद।।
🤨🤨
शर्ट-पैंट का फैशन आया,
धोती और लंगोट नदारद।
खुले-खुले परिधान आ गए,
बंद गले का कोट नदारद।।
आँचल और दुपट्टे गायब,
घूंघट वाली ओट नदारद।
महंगाई का वह आलम है,
एक-पांच के नोट नदारद।।
🤨🤨
लोकतंत्र अब भीड़तंत्र है,
जनता की पहचान नदारद।
कुर्सी पाना राजनीति है,
नेता से ईमान नदारद।।
गूगल विद्यादान कर रहा,
गुरुओ का सम्मान नदारद।
एक अरसे बाद बेहतरीन कविता पढ़ने को मिली। आपको प्रेषित किए बिना नहीं रह सका। उम्मीद करता हूँ कि आपको भी पसंद आएगी।
🙏🙏 व्हाट्सएप पर प्राप्त।
कवि का नाम?
ReplyDeletewhatsajpp par mili, naam nahi maloom aapko maloom ho to bata dijiyega
Deleteबहुत ही सुन्दर 🥰🥰🥰
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