NA KISI KI ANKH KA NOOR HUN- BAHADUR SHAH ZAFA (LYRIC)
ZAFAR-
NA KISI KI ANKH KA NOOR HUN
न
किसी की आंख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ,
जो किसी के काम ना आ सके, मैं वह एक मुश्ते गुबार हूँ !
मेरा
रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया,
जो चमन खिज़ां से उजड़ गया, मैं उसी की फसले बहार हूँ !
ना
तो मैं किसी का हबीब हूँ, ना तो मैं किसी का रक़ीब हूँ,
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ, जो उजड़ गया वह दयार हूँ !
पए
फातेहा कोई आये क्यूँ, कोई चार फूल चढ़ाये क्यूँ,
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ !
मैं
नहीं हूँ नगमाए जां फ़िज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या,
मैं
बड़े बरोग की हूँ सदा, मैं बड़े दुःख की पुकार हूँ !
मुश्ते
गुबार- एक मुठ्ठी मिटटी
दयार – घर
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बहादुर शाह ज़फर
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