GHAZAL - JANISAR AKHTAR - HAR EK ROOH ME
हर
एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे,
ये
जिंदगी तो कोई बद दुआ लगे है मुझे !
जो
आंसुओं में कभी रात भीग जाती है,
बहुत
क़रीब वो आवाज़े-पा लगे है मुझे !
मैं
सो भी जाऊं तो क्या मेरी बंद आँखों में,
तमाम
रात कोई झांकता लगे है मुझे !
मैं
जब भी उसके ख़यालों में खो सा जाता हूँ,
वो
ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे !
दबा
के आई है सीने में कौन सी आहें,
कुछ
आज रंग तेरा सांवला सा लगे है मुझे !
ना
जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखात है,
कभी
कभी तो बड़ा खौफ़ सा लगे है मुझे !
अब
एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिये,
अभी
तलक तो वही फासला लगे है मुझे !
बिखर
गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद,
हर
एक फ़र्द कोई सानिहा लगे है मुझे !
(फ़र्द
– व्यक्ति, सानिहा – दुर्घटना
-
जांनिसार अख्तर
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