ROOH-E-SHAYARI,



मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता
~ रियाज़ ख़ैराबादी
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दिल का मातम किया नहीं जाता !
अब तो हमसे जिया नहीं जाता !!
मुझको बदनाम करती है दुनिया !
नाम उनका लिया नहीं जाता !!
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कलम में ज़ोर जितना है, जुदाई की बदौलत है
मिलने के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं!
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कुछ इख्तियार नहीं किसी का तबिअत पर,
यह जिस पर आती है बेइख्तियार आती है।
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बात मोहब्बत की थी, तभी तो लूटा दी जिंदगी तुझ पे । 
जिस्म से प्यार होता तो तुझ से भी हसीन चेहरे बिकते है,बाजार में !!
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जिंदगी गुजर गई सबको खुश करने मे
जो खुश हुये वो अपने नही थे
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कोशिश करता हूँ कि अंधेरे खत्म हो लेकिन !
कहीं जुगनू नही मिलता कहीं चाँद अधूराहै !! 
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शतरंज खेलते रहे वो हमसे कुछ इस कदर;
कभी उनका इश्क़ मात देता तो कभी उनके लफ्ज़!
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सर्दियाँ भी कैसी सर्द होती हैं,
सर्द मौसम सी बेदर्द होती हैं||
ये कौन सो रहा है खुले आसमां के पहलू में,
झीनी चादर गरीब की कफ़न सी होती है||
~ ~ नरेश मलिक 
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सारे ही काम ज़रूरी थे ज़िन्दगी में और होते भी गए !
एक रब तेरी इबादत ही थी, जो हर बार टलती गयी !!
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जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए !
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए !!

दिल का वो हाल हुआ है ग़म-ए-दौराँ के तले !
जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए !!

इन्हीं गुल-रंग दरीचों से सहर झाँकेगी !
क्यूँ न खिलते हुए ज़ख़्मों को दुआ दी जाए !!

कम नहीं नश्शे में जाड़े की गुलाबी रातें !
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए !!

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या !
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए !!
~ जा निसार अख़्तर 

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