बहुत ही सुन्दर पंक्तिया एक नारी की कलम से

बहुत ही सुन्दर पंक्तिया एक नारी की कलम से 

छोटी थी जबबहुत ज्यादा बोलती थी

माँ हमेशा झिडकती ,

चुप रहो ! बच्चे ज्यादा नहीं बोलते . 

थोड़ी बड़ी हुई जब , थोड़ा ज्यादा बोलने पर

माँ फटकार लगाती

चुप रहो ! बड़ी हों रही हों . 

जवान हुई जब , थोड़ा भी बोलने पर

माँ जोर से डपटती

चुप रहो  , दूसरे के घर जाना है .

ससुराल गई जब , कु़छ भी बोलने पर

सास ने ताने कसे,

चुप रहो , ये तुम्हारा मायका नहीं . 

गृहस्थी संभाला जब , पति की किसी बात पर बोलने पर

उनकी डांट मिली ,

चुप रहो ! तुम जानती ही क्या हों ? 

नौकरी पर गई , सही बात बोलने पर कहा गया

चुप रहो ! अगर काम करना है तो

थोड़ी उम्र ढली जब , अब जब भी बोली तो

बच्चों ने कहा

चुप रहो ! तुम्हें इन बातों से क्या लेना .


बूढ़ी हों गई जब , कुछ भी बोलना चाहा तो

सबने कहा

चुप रहो ! तुम्हें आराम की जरूरत है। 

इन चुप्पी की तहों में , आत्मा की गहों में

बहुत कुछ दबा पड़ा है

उन्हें खोलना चाहती हूँ , बहुत कुछ बोलना चाहती हूँ

पर सामने यमराज खड़ा है , कहा उसने

चुप रहो ! तुम्हारा अंत आ गया है

और मैं चुपचाप चुप हो गई

हमेशा के लिए...


 

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