ROOH-E-SHAYARI

घर रहिए कि बाहर है इक रक़्स बलाओं का
इस मौसम-ए-वहशत में नादान निकलते हैं
~ फ़रासत रिज़वी
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जो तूफानों में पलते जा रहे हैं !
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं !!
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सड़क किनारे खड़े दरख्तों से पूछता हूँ अक्सर,
क्या वो गुजरी है इधर से के बस आदतन हरे हो !
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नाम  और पतंग जितनी ऊंचाई पर होते हैं
काटने वालों की संख्या उतनी ही अधिक होती है
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डाल दो अपनी दुआ के चन्द अल्फाज़ मेरी झोली में,
क्या पता आपके होंठ हिले और मेरी जिंदगी संवर जाये !
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बगैर दाँत वाले भी उठा लेते है लुत्फ इसका'
ये शराब हैं मेरी जां इसे चबाना नही पड़ता
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ज़िंदगी सँवारने को तो ज़िंदगी पड़ी है,
चलो वो लम्हा सँवारें जहाँ ज़िंदगी खड़ी है
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दर्द की तुरपाइयों की नाज़ुकी तो देखिये.
एक धागा छेड़ते ही ज़ख्म पूरा खुल गया
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समझने ही नहीं देती सियासत हमको सच्चाई
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पण नहीं मिलता 
~अज्ञात 
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जंगल जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी,
कितना मुश्किल है तय करना, खुद से खुद की दूरी.
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रात आये वो मेरे ख्यालों में,
आखिर  इतनी फुरसत उन्हें मिली कैसे !
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इश्क़ था इक पतंग से उसको !
उसके धागे ने जान ही ले ली !!
~असद अजमेरी
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कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
~ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
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हँसते हुए लोगो की संगत, इत्तर की दूकान जैसी होती है,
कुछ न खरीदो तो भी, रूह तो महका ही देती है !!
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जाने   कौन   भीगने   से  रह गया है   शहर में !

जिनके   लिए   लौटती है रह रह के बारिश फिर से !
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