शायरी
अपनी वफ़ा का इतना दावा ना किया कर
मैंने रूह को जिस्म से बेवफाई करते देखा है
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नुक्स निकालते हैं वो इस कदर मुझ में
जैसे उन्हें खुदा चाहिए था और हम इंसान निकले
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जाने वो कैसे मुकद्दर की किताब लिख देता है !
साँसें गिनती की और ख्वाइशें बेहिसाब लिख देता है !!
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दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए
जब तक न साँस टूटे जिए जाना चाहिए
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शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'
इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई
~मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
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ऐसे माहौल में दवा क्या है, दुआ क्या है
जहाँ कात़िल ही खुद पूछे कि हुआ क्या है
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मुझको था ये ख़याल कि उसने बचा लिया !
उसको था ये मलाल कि ये कैसे बच गया !!
~ मंगल नसीम
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कैसे हो
पाएगी अच्छे इंसान की पहचान,
दोनों
नकली हो गए आंसू और मुस्कान !!
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क्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं
इस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गईं
पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी हो रहे
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं
~ क़ैफ़ी आज़मी
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तौबा तो की है पीने से, पी लूँ अगर मिले
फिर से मेरी नज़र से जो तेरी नज़र मिले
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तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता
~ दाग़ देहलवी
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गुलाम थे
तो हम सब ‘हिन्दुस्तानी’ थे..
आज़ादी
ने हमें हिन्दू मुस्लिम बना दिया..
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परख से
कब जाहिर हुई शख्सियत किसी की !
हम तो बस
उन्हीं के हैं,जिन्हें
हम पर यकीन है !!
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गैर तो गैर है गैरों से गिला क्या,
अपने तो अपने है, अपनों से मिला क्या?
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दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे !
जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे !!
~ दाग़ देहलवी
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गुनेहगार
को गले लगाकर इस कदर
माफ किया
बेगुनाह
भी चिल्ला उठे, हम भी
गुनेहगार है
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नाम तो हम दोनों का था शादी के कार्ड पर
मगर उसका अंदर था और मेरा बाहर
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जिसको भी हासिल किरदार ना हुआ मेरा
वो मेरे दामन-ए-वजूद को दाग़दार कह गए
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सहारा
लेना ही पड़ता है मुझको दरिया का !
मैं एक
कतरा हूँ तन्हा बह नही सकता !!
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आप पहलू में जो बैठें तो सँभल कर बैठें
दिल-ए-बेताब को आदत है मचल जाने की
जलील मानिकपूरी
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और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
~फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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किस शौक किस तमन्ना किस दर्ज़ा सादगी से !
हम आपकी शिकायत करते हैं आप ही से !!
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जब ठोकरें खा कर भी ना गिरो !
तो समझ लेना कि दुआओं ने थाम रखा है !!
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