SHAYARI
ओढ़ कर पल्लू वो निकले है घर से,
पहली बार देखा है मैने धूप में चांद को जलते हुए ।
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मन बैरागी, तन
अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो, बहुत
बड़ी फ़नकारी है
औरों जैसे होकर भी हम बाइज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ
अपनी अय्यारी है
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तेरे ईमान की तारीफ़ तो
बनती है कि तूने
सभी बेइमानियाँ कर दीं बड़ी
ईमानदारी से
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नजरें झुका लेने से भला सादगी का क्या ताल्लुक,
शराफत तब झलकती है,जब
"नियत" बेपर्दा हो
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बहुतों के क़रीब जा कर ये जाना है
हम पर अकेलापन ही जचता है
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मेरी सभी ख्वाइश
मुकम्मल हो जाएंगी।
अब फ़क़त अपना दीदार दे कर तो देखो।
अवनीश त्रिवेदी"अभय
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