PAAP KA GURU पाप का गुरु
गांव के एक किसान ने उनसे पूछा, पंडितजी आप हमें यह बताइए कि पाप
का गुरु कौन है ?
प्रश्न सुन कर पंडितजी चकरा गए, क्योंकि भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था !
पंडितजी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा है, इसलिए वे फिर काशी लौटे फिर अनेक गुरुओं से मिले । मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला ।
अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई। उसने पंडितजी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।
वेश्या बोली, पंडितजी..! इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा।
पंडितजी के हां कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से
व्यवस्था कर दी ।
पंडितजी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम-आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे, इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला।
एक दिन वेश्या बोली, पंडितजी…! आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो मैं नहा-धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं !
आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी। स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडितजी को लोभ आ गया। साथ में पका-पकाया भोजन, अर्थात दोनों हाथों में लड्डू !
इस लोभ में पंडितजी अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडितजी ने हामी भर दी और वेश्या से बोले, ठीक है, तुम्हारी जैसी इच्छा लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि कोई देखे नहीं, तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते हुए।
वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर पंडितजी के सामने परोस दिया, पर ज्यों ही पंडितजी खाने को तत्पर हुए, त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली।
इस पर पंडितजी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है ?
वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडितजी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है !
यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं
पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर
लिया।
यह लोभ ही पाप का गुरु है।
मछली आटे के लोभ में आकर अपना गला फंसा देती है, भौंरा सुगन्धि के लोभ में आकर कभी-कभी कमल में बन्द होकर अपनी जान से हाथ धो बैठता है, प्रकाश के लोभ में आकर पतंगा भी जान दे बैठता है, दाना चुगने के लोभ में आकर पक्षी जाल में फंस जाते हैं, जब वे पशु-पक्षी थोड़े से प्रलोभन में आकर बंधन में पड़ जाते हैं, प्राण दे बैठते हैं तो हम तो पूर्णतया लोभ कषाय में ही रंगे हुए हैं हमारी न जाने क्या दशा होगी ?
सीता विवाह और राम का राज्याभिषेक दोनों शुभ मुहूर्त में किया गया। फिर भी न वैवाहिक जीवन सफल हुआ न राज्याभिषेक और जब मुनि वसिष्ठ से इसका जवाब मांगा गया तो उन्होंने साफ कह दिया
"सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ।
लाभ हानि, जीवन मरण, , यश अपयश विधि हाँथ।।"
अर्थात, जो विधि ने निर्धारित किया है वही होकर रहेगा। न राम के
जीवन को बदला जा सका, न कृष्ण के। न ही शिव ने शती के मृत्यु को टाल सके, जबकि
मृत्युंजय मंत्र उन्ही का आवाहन करता है।
रामकृष्ण परमहंस भी अपने कैंसर को न टाल सके। न रावण ने अपने जीवन
को बदल पाया न कंस।
जबकि दोनों के पास समस्त शक्तियाँ थी। मानव अपने जन्म के साथ ही जीवन मरण, यश अपयश, लाभ हानि, स्वास्थ्य, बीमारी, देह रंग, परिवार समाज, देश स्थान सब पहले से ही निर्धारित कर के आता है। साथ ही साथ अपने विशेष गुण धर्म, स्वभाव, और संस्कार सब पूर्व से लेकर आता है।।
इसलिए यदि अपने जीवन में परिवर्तन चाहते हैं, तो अपने कर्म बदलें।
आपकी मदद के लिए स्वयं आपकी आत्मा और परमात्मा दोनों है।
परमात्मा से ज्यादा शुभ चिंतक भला कौन हो सकता है हमारा ?
BY COURTSEY - WHATSAPP GYAN
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