ROOH-E-SHAYARI


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बरसों  में एहसास" हुआ  है  हमको अपनी ग़लती का 

ख़ुशबू की उम्मीद थी हमको कुछ  काग़ज़ के फूलों से
असद अजमेरी
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फ़ैज़
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
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गर तुम खुश हो मुझसे दूर रहकर
तो मैं खुश हूँ तुम्हें दूर से देखकर
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तुम्हारी दिल्लगी देखो, हमारे दिल पर भारी है,
तुम तो चल दिए हंसकर, यहाँ बरसात जारी है!
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सिखा न सकी जो उम्र भर तमाम किताबें मुझे !
करीब से कुछ चेहरे पढ़े और न जाने कितने सबक सीख लिए !!
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मौसम बहुत सर्द है, चल ऐ दोस्त
गलतफहमियों को आग लगाते है
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 मेरे पास से गुज़र के मेरा हाल तक न पूछा 

मै ये कैसे मानलूं क वो दूर जा के रूए !! 
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किस्सों में ढूंढा गया मुझे पर मैं तो कहानी में था,
आप तो किनारे से लौट आये मैं वहीं पानी मे था
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अमीरों के दर पर ग़रीबों की क़तारें,
फ़क़ीरों के दर पर अमीरों की क़तारें।
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बहादुर शाह ज़फ़र
निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
इधर से क्या न हुआ पर उधर से कुछ न हुआ
जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त
लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ
हमेशा फ़ित्ने ही बरपा किए मिरे सर पर
हुआ ये और तो उस फ़ित्ना-गर से कुछ न हुआ
बला से गिर्या-ए-शब तू ही कुछ असर करता
अगरचे इश्क़ में आह-ए-सहर से कुछ न हुआ
जला जला के किया शम्अ साँ तमाम मुझे
बस और तो मुझे सोज़-ए-जिगर से कुछ न हुआ
रहीं अदू से वही गर्म-जोशियाँ उस की
इस आह-ए-सर्द और इस चश्म-ए-तर से कुछ न हुआ
उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने
हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ
शब-ए-विसाल में भी मेरी जान को आराम
अज़ीज़ो दर्द-ए-जुदाई के डर से कुछ न हुआ
न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ न हुआ
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कभी वो ग़ज़ल  सी  लगती है,
तो कभी एक तंज़  सी  लगती है।
रिसता हुआ ये रिश्ता, कभी इश्क़
तो कभी जंग सा लगता है।।
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बस यही दो मसले जिंदगी भर ना हल हुए
ना नींद पूरी हुई ना ख़्वाब पूरे हुए
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वहशत का ज़माना है हर हाथ मे पत्थर है
महफ़ूज जो रह जाये शीशे का मुक़ाद्दर है
अए मेरे बुजुर्गों तुम मरने की दुआयें दो
इस दौर मे जीना भी मरने के बराबर है
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मन्दिर मे शिवालों मे मस्जिद की अज़ानो मे
है नाम तेरा रौशन तस्बीह के दानो मे
मै कलयुग के ज़माने का क्या हाल सुनाऊँ मै
अब ज़हर भी बिकता है अमृत की दुकानों मे।
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कभी मिटेगी तेरी याद न मेरे दिल सी,

ये याद ही तो मेरे पास एक निशानी है,
हज़ार दूरियां हैं दरमियान हमारे अब ,
तू याद आता है ये तेरी मेहेरबानी हैं 
~ सना 
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तौबा तो की है पीने सेपी लूँ अगर मिले

फिर से मेरी नज़र से जो तेरी नज़र मिले
जब रास्ते में सबसे तेरा नामाबर मिले
फिर क्यों न उसके पहले ही तेरी ख़बर मिले
मुद्दत के बाद वस्ल की आई थी वो घड़ी
हम यूँ मिले कि पानी में जैसे शकर मिले
लैला नहीं तो किसलिए जीना है शह्र में
मजनूँ की तर्ह हमको भी सह्रा में घर मिले
कब तक रहेंगे ऐ ख़ुदा अहले वफ़ा अलग
कुछ कर कि अपनी शाम से उसकी सहर मिले
जिसको भी देखा आपने, दीवाना कर दिया
दिल जीतने का आपसा सबको हुनर मिले
क़ुर्बत की रात जब नहीं क़िस्मत में है लिखी
ले चल मुझे ऐ शामे ग़म बादा जिधर मिले 
आए हैं थक के बूद के लंबे सफ़र से हम
रिज़वाँ तू ऐसा कर कि याँ लम्बा हज़र मिले
शर्मो हया का हर दफ़ा लश्कर था साथ में
जब भी मिले वो 'राज़' से, सीना सिपर मिले
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