SHAYARI
दोस्तों की दोस्ती में कभी कोई रूल नहीं होता है
और ये सिखाने के लिए, कोई स्कूल नहीं होता है
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तुम्हें सलीक़ा सिखा देंगे शेर कहने का
हमारे साथ कोई रात जाग कर देखो।।
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एहसान किसी का वो रखते नहीँ मेरा भी चुका दिया
जितना खाया था नमक मेरा मेरे जख्मो पे लगा दिया
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रिश्ते काँच सरीख़े हैं, टूट कर बिखर ही जाते हैं
समेटने की ज़हमत कौन करे, लोग
काँच ही नया ले आते हैं
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उधर आ रहे हो तुम इतनी अदा से
इधर साँस रुक रुक के आ जा रही है
दुपट्टे को लहराओ यूँ ना हवा में
फ़रिश्तों के ईमान पर आ रही है
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मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
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मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
तू दोस्त है तो नसीहत न कर ख़ुदा के लिए
शाज़ तमकनत
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दर्द-- दर्द ही रहा
सीधा भी लिखा,और उल्टा भी
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लिख दूं किताबें तेरी मासूमियत पर फिर डर लगता है,
कहीं हर शख्स तेरा तलबगार ना हो जाये।
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फिजाओ में भी आज फिर क्या रंग छाया है !
नीले आसमान में आज फिर सूरज निकल आया है !!
तू एक बार आज फिर मुस्कुरा दे !
तुझसे मिलने आज फिर एक नया सवेरा आया है !!
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कुछ गफलतें भी रक्खो हर रिश्ते में
किसी को इतना मत जानो कि ज़ुदा हो जाये
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दुश्मन को भी सीने से लगाना नही भूले ।
हम अपने बुज़ुर्गों का ज़माना नही भूले ।।
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उस दौर की इतनी सी कसक दिल में है ऐ दोस्त
उस दौर के दुश्मन को भी सीने से लगा लूँ
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चाहे जो कोई भी बलात्कारी हो !
सब पर फरमाने फाँसी जारी हो !!
~सरफ़राज़ भारतीय
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महफ़िल में गले मिल के वो धीरे से कह गए
ये दुनिया की रस्म है इसे मोहब्बत न समझ लेना
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हर घड़ी तेरे ख़यालों में घिरा रहता हूँ ।
मिलना चाहूँ तो मिलूं ख़ुद से मैं तन्हा कैसे ।।
- नूर
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मैं ज़ख्म हूँ जाकर गले मिलूं कैसे ।
नमक से तर यहां सभी ने कपड़े पहने हैं ।
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यूँ हर किसी से न अब हाल ए बयान कीजिए !
दौर ए ज़ाहिर में सब किरदार दोहरे हैं !!
~अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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पलटकर आऊंगा शाखों पे खुशबुएँ लेकर ।
खिजा की जद में हूं मौसम जरा बदलने दो ।।
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नाम जुबाँ पर सुबह ओ शाम था ।
इक तेरा दीदार चारो धाम था ।।
इक दुआ थी रहमतों में तेरे भी ।
आयतों में मेरे तेरा नाम था ।।
~लक्ष्मण दावानी
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रहे न कुछ मलाल बड़ी शिद्दत से कीजिये
नफरत भी कीजिये तो ज़रा मोहब्बत से कीजिये.
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तुझसे जुड़ा हुआ, हर लम्हा लज़ीज़ है !
सब हैं अपने, पर तू सबसे अज़ीज़ है !!
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मर्द हो,तो तुम्हारी हैसियत का इतना तो रौब हो,
की बग़ल से गुजरे कोई औरत तो वो बेख़ौफ़ हो..
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अब ये न पूछना की..ये अल्फ़ाज़ कहाँ से लाता हूँ
कुछ चुराता हूँ दर्द दूसरों के,कुछ
अपनी सुनाता हूँ
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वक्त गुज़र ही जाता है !
कुछ पाकर भी कुछ खोकर भी
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