GHAZAL-तेरे बग़ैर नींद ना आये तो क्या करूँ । -K.K.SINGH MAYANK


GHAZAL-तेरे बग़ैर  नींद ना आये तो क्या करूँ । 



तेरे बग़ैर  नींद ना आये तो क्या करूँ ।
दर्दे शबे फ़िराक़ जगाये तो क्या करूँ ॥

कर तो रहा हूँ तुझको भुलाने की कोशिशें ।
दिल से ही तेरी याद ना जाए तो क्या करूँ ॥

ए शेख जी बताओ के तौबा के बाद भी ।
आँखों से कोई अपनी पिलाये तो क्या करूँ ॥

मैंने वफ़ा के दीप जला तो लिए मयंक ।
गर आँधियों को रास न आये तो क्या करूँ ॥
~ के के सिंह "मयंक"

जनाब के. के. सिंह “मयंक” अकबराबादी की पैदाइश सन् 1944 ई. में उत्तर प्रदेश के जिला मथुरा में हुई। उन्होंने अपनी तालीम आगरा (अकबराबाद) में हासिल की । सन्‌ 1969 ई. में उन्होंने रेलवे विभाग में बतौर अफसर अपनी नौकरी की शुरुआत की। बृज भूमि से ताल्लुक होने की वजह से बचपन ही से उन्हें कविताएं, गीत, वगैरह लिखने का शौक रहा। आला अफसर होने की वजह से हिंदुस्तान के मुख्तलिफ सूबों और शहरों में उन्हें रहने और वहाँ की जिंदगी को क़रीब से देखने क मौक़ा हासिल हुआ। इस दौरान सन् 1980 ई. में रतलाम पहुँचने के बाद उर्दू शायरी से लगाव पैदा हुआ और तब से आज तक अदब की ख़ि‌दमत कर रहे हैं। पिछ्ले 33 वर्षो में उन्होंने बेशुमार भजन, हम्द, नात, मनकबत और ग़जल लिखे और अपनी मुसलसल मशक्कत की बदौलत मुमताज़ शायरों में अपनी एक जगह बना ली। आपके कलाम को हिंदुस्तान के जाने माने कलाकारों जैसे ‌‌‌‌‌अहमद हुसैन, मोहम्मद हुसैन, राजेंद्र मेहता, नीना मेहता, रामकुमार शंकर, सुधीर नारायन, शंकर शंभू, शमीम-नईम अजमेरी, सईद फरीद साबरी, अज़ीज़ नाज़ाँ, पंकज उधास, रूप कुमार राठौर ने गाया, जिसको सभी खासोआम ने बहुत-बहुत पसंद किया । दूरदर्शन, टी वी सीरियलों जैसे ‘लहू के फूल’ और सी डी के ज़रिये उनका कलाम आवाम तक पहुंच रहा है ।
मयंक एक हिंदी भाषी हैं, लेकिन उन्होंने हिंदी और उर्दू दोंनो ज़ुबानों में काम किया है । अब तक उनकी 25 किताबें/रिसाले आये हैं, जो हिंदी, उर्दू या दोनों ज़बानों में हैं – कुछ गीत अनाम के नाम, कलाम-ए-मयंक, मयंक के गीत और गीतिकायें, तन्हाइयाँ, वंदे मातरम्‌, गुल्दस्ता, दीवान-ए-मयंक (उर्दू व हिन्दी), मयंक भजनावली, कायनात्‌, उर्दू काव्य श्री (कन्नड़), जज़्ब-ए-इश्क़, मयंक की गज़लें, जुनून, सिम्त काशी से चला, नज़राना-ए-अक़ीदत, क़रम-ब-क़रम (उर्दू व हिन्दी), लम्हे-लम्हे, कारवां-ए-गज़ल, मयंक की शायरी (उर्दू व हिन्दी), हम भटकते रहे रौशनी के लिये, गीत संकलन, भीम के सपनों वाला हिंदोस्तान, कुछ खट्टा कुछ मीठा, रिसाला-ए-इंसानियत, लारेब (उर्दू) । मयंक आकाशवाणी और दूरदर्शन के मान्य शायर हैं और मुशायरों और नाशिश्तों में पढ़ते रहे हैं।
मयंक का कलाम देश-भक्ति और कौमी एकता का पैगाम देता है। वे उन शायरों में से हैं, जिन्होनें ‘वंदे मातरम्‌’ नाम से देश-भक्ति पर पूरा मजमुआ लिखा है । गैर-मुस्लिम होते हुए भी उनके हम्द, नात, मनक़बत और सलाम के मजमुए शाया हुए हैं। मयंक तरन्नुम और तहत दोनों तरीक़ों से पढ़्ते हैं । हिंदोस्तान के हर कोने में उन्होनें अपना कलाम पढ़ा है । ग़ालिब के बाद उर्दू शायरी की तारीख़ में मयंक उन चंद शायरों में से हैं, जिन्होनें अपनी गज़लों का मजमुआ हरफे तहज़्ज़ी के एतबार से तरतीबवार गज़लें लिख कर दीवान की शक्ल में शाया करवाया है और दीवान लिखने के रवायत को आगे बढाया है।

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