ROOH-E-SHAYARI
मेरे लिखे अल्फ़ाज़ हीं पढ़ पाये वो बस,
मुझे पढ़ पाए इतनी उसकी तालीम हीं नहीं ।
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मेरी रूह ग़ुलाम हो गई है तेरे इश्क़ में शायद |
वरना यूँ छटपटाना मेरी आदत तो न थी ||
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उसकी जवानी का आलम क्या होगा,
जो इस उम्र में भी बाज़ार गरम कर दे .?
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लिखना तो था कि खुश
हूं मैं तेरे बगैर
मगर कलम से पहले आंसू
गिर गए कागज पर
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इश्क़ की बेहतरीन सूरत हो आप !
मेरी ज़िंदगी की ज़रूरत हो आप !!
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इस जहाँ में कौन किसी का दर्द अपनाता है
देख हवा का रुख, बदल जाता है
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सुना है तुम ले लेते हो हर बात का बदला !
आज मांगेंगे कभी तुम्हारे लबों को चूमकर !!
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वह कहानी थी, चलती
रही
मैं किस्सा था, खत्म हुआ
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इस क़दर तुम पर मर मिटेंगे !
तुम जहाँ देखोगे तुम्हे हम ही दिखेंगे !!
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वो छोटी छोटी उड़ानों पे गुरुर नहीं करता,
जो परिंदा अपने लिये आसमान ढूँढ़ता है
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जाति नहीं होती बड़ी ,न ही बड़ा है धर्म |
बड़ा वही इस जगत में,जिसका ऊँचा कर्म ||
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गली सूनी सड़क सूनी नगर सूना अब ऐसे में,
ख़ुदा जाने तुम्हारी याद किस रस्ते से आती है ।
असद अजमेरी
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मुझ से खुशनसीब हैं मेरे लिखे हुए ये लफ्ज़,
जिनको कुछ देर तक पढेगी, निगाह तेरी
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खुल जाता है अपनों की यादों का बाज़ार सुबह सुबह
और हम उसी रौनक में पूरा दिन गुज़ार देते हैं
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सीखना पड़ेगा अब आँखों
से मुस्कुराना,
होठों की मुस्कान तो मास्क ने छुपा ली
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ना आहों से थे हम वाक़िफ़ ना तो आंसू बहाते थे,
मोहब्बत जब नहीं की थी तो हम भी मुस्कुराते थे ।
- असद
अजमेरी
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शायरी उसी के लबों पर सजती है साहिब,
जिसकी आँखों में इश्क़ रोता हो
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जिंदगी में अपनेपन और एहसासों का
बड़ा काम होता है l
दूसरों के गमो को जो अपनाता है
वही इंसान होता है ll
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शोहरत का ख्याल रखें
इसकी उम्र आपसे
ज्यादा है
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सिमट गई मेरी गजल भी चंद अल्फ़ाज़ों में
जब उसने कहा मोहब्बत तो है पर तुमसे नहीं
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इश्क मैं अँगूर
की बेटी
से क्या कर बैठा
सारी ही दुनिया को खुद से खफा कर बैठा
हम ने तो चाही ज़िन्दगी में सब के खुशियाँ
और लोग समझ बैठे की
मैं नशा कर बैठा
- लक्ष्मण दावानी
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जो मशहूर हुए सिर्फ उन्होंने ही तो मोहब्बत नहीं की
कुछ लोग चुपचाप भी तो क़त्ल हुए है मोहब्बत के हाथोँ ।
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बुरा है यहां संसार का
हर एक इंसान
कोई किसी के लिए तो कोई किसी लिए
- लक्ष्मण दावानी
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महफ़िलो को फिर
सजाने आ गये
प्यार की दौलत
लुटाने आ गये
वो हटा कर
रुख से पर्दा अपने यूँ
जाम नज़रो से
पिलाने आ गये
- लक्ष्मण दावानी
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जो दिल में वो ज़बां पर है,
आदत कुछ ऐसी हमारी है !
- फिरोज़ खान अल्फ़ाज़
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झुका लेता हूँ सर हर मजहब के आगे,
जानता हूँ जुदा तो लोग हैं पर ख़ुदा तो एक है ।
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