RROH-E-SHAYARI
वक़्त बीतने के बाद अक़्सर
ये अहसास होता है,
कि, जो छूट गया वो लम्हा ज्यादा
बेहतर था
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जहां गुंज़ाइशें है,वहीं हर रिश्ता ठहरता है !
आज़माइशें अक्सर रिश्ते तोड़ देती है !
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किस ज़रूरत के भला पेश ए नज़र खोल दिए ।
क़ैद चिड़ियों को रखा बाज़ के पर खोल दिए ।।
ऐ ख़ुदा मंदिर ओ मस्जिद में लगाकर ताले ।
आज सरकार ने मयखानों के दर खोल दिए ।
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हर रात की सुबह होती है, बस इस बार अंधेरा जरा गहरा है
मुश्किल इसलिए है
शायद कि, खुद पर खुद का ही पहरा है
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जब्र सह जाऊं तो जीने की अदा मुजरिम हो
मुस्कुराऊं तो तेरे ग़म का भ्रम जाये है
- वसीम
साहब
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मोहब्बत और इबादत में फ़र्क़ तो है नाँ
सो छीन ली है तिरी दोस्ती मोहब्बत ने
- इफ़्तिख़ार
मुग़ल
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मैं आदत हुँ उसकी वो ज़रुरत हैं मेरी,
मैं फरमाईश हुँ उसकी वो इबादत हैं मेरी
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जब काम न मिले तो रोटी नहीं मिलती,
भूख की नौकरी में छुट्टी नहीं मिलती !
- फिरोज़
खान अल्फ़ाज़
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लाख मीठा हो तेरे शहर का पानी लेकिन,
हम तेरे शहर को कानपुर तो नहीं कह सकते !
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घर जाते ही अपनी नज़र उतार लेना,
हमने इश्क़ की नजरों से देखा है तुम्हें
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दर्द भी तुम, दवा भी तुम, इबाबत भी तुम, खुदा भी तुम
चाहा भी तुमको और पाया भी, जुदा भी तुम और साथ भी तुम
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मौत मरती नहीं तो क्या करती !
मैंने ठानी जो और जीने की !!
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जो है लम्हा अभी, इसको जी भर के जी,
ये ही लम्हा है जिसमें है सारी उमर !
- फिरोज़ खान अल्फ़ाज़
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दौलत में सिर इतना ना उठायो कि,
मर्यादा की चौखट से टकरा जायो
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मंजिल मिल ही जाएगी भटकते भटकते,
गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं
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वह इश्क इश्क ही क्या जिसमें जुनून ना हो,
और वह सनम सनम ही क्या जिसमें गुरूर ना हो
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'शब्दों' का भी 'अहम' 'किरदार' होता
है 'नजदीकियां' बढ़ाने में..
कभी हम 'समझ' 'नहीं' पाते तो कभी 'समझा' 'नहीं' पाते.
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कुछ तो चाहत रही होगी इन बूंदों की भी वरना,
कौन छूता है जमीन को आसमां पे पहुंच कर ।
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एक बोतल शराब के लिये
,
कतार मे जिंदगी लेकर खड़ा हो गया ,
मौत का गम तो वहम था,
आज नशा जिंदगी से बड़ा हो गया !
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क्या हसीं इत्तिफ़ाक़ था तेरी गली में आने का !
किसी काम से आये थे किसी काम के न रहे !!
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दुनिया कहे कुछ है मगर ईमान की ये बात
होने की तरह हो तो इबादत है मोहब्बत
-मंज़र
लखनवी
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वो मेरे दिल पर सर रख कर सोये थे बेख़बर !
हमने धड़कने ही रोक लीं कि कहीं उनकी नींद न टूट जाए !
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इबादत वो है जिसमें जरूरतों का ज़िक्र ना हो,
हो तो बस एक सिर्फ़ उसकी रहमतों का शुक्र हो।
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कोई हयात ज़माने को है अज़ीज़ बहुत,
कोई हयात है कि रोज़ रोज़ मरती है !!
- अज़हर
हाशमी
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जिसे पूजा था हमने वो तो ख़ुदा ना हो सका,
हम ही इबादत करते-करते फ़कीर हो गये
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