Kabhi Jamood Kabhi Sirf Intzaar Saa Hai- Kaifee Azmi
Kabhi Jamood Kabhi Sirf Intzaar Saa Hai
Kaifee Azmi
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतशार-सा है !
जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है !!
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ !
कि आज दामने-यज़दाँ भी तार तार सा है !!
सजा संवार के जिस पर हज़ार नाज़ किए !
उसी पे खालिक़े-कौनेन शर्मशार सा है !!
तमाम जिस्म है बेदार फिक्र ख़्वाबीदा !
दिमाग़ पिछले ज़माने कि यादगार सा है !!
सब अपने
अपने पाँव पे रख के पाँव चलते हैं !
ख़ुद अपने
दोश पे हर आदमी सवार सा है !!
कोई तो
सूद चुकाये, कोई तो ज़िम्मा ले !
उस इन्क़लाब
का जो आज तक उधार सा है !!
- कैफ़ी
आज़मी
जमूद = जमाव, इंतशार-सा= बिखराव, दामने-यज़दाँ = ख़ुदा का दामन,
खालिक़े-कौनेन = संसार का निर्माता, बेदार = सचेत, ख़्वाबीदा = सोई हुई, दोश=कंधा,
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