LAGTA NAHI HAI DIL MERA - BAHADUR SHAH ZAFAR
LAGTA NAHI HAI
DIL MERA - BAHADUR SHAH ZAFAR
लगता नहीं
है दिल मेरा उजड़े दयार मे,
किसकी बनी
है आलमे ना पाये दार मे !
बुलबुल
को बाग़बां से न सैय्याद से गिला,
क़िस्मत
में क़ैद थी लिखी फ़सल-ए-बहार में !
कह दो
इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी
जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में !
इक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमा,
कांटे बिछा दिये हैं दिल-ए-लालाज़ार ने !
उम्र-ए-दराज़
माँग के लाये थे चार दिन,
दो
आरज़ू में कट गये, दो इंतज़ार में !
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुये शाम हो गई,
फैला के पाँव सोएँगे कुंजे-मज़ार मे !
है
कितन बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये,
दो गज़
ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में !
- बहादुर शाह ज़फर
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